बज़्म-ए-अहबाब में फैली जो सुख़न की ख़ुशबू मुझ को महसूस हुई मुश्क-ए-ख़ुतन की ख़ुशबू मेरे अशआ'र में है गंग-ओ-जमन की ख़ुशबू मुझ को लगती है भली अर्ज़-ए-वतन की ख़ुशबू बाग़-ए-जन्नत के भी फूलों में नहीं हो सकती ऐसी होती है शहीदों के बदन की ख़ुशबू जो रिवायात के मुनकिर हैं ये कह दो उन से मेरी तहज़ीब में है अहद-ए-कुहन की ख़ुशबू मुझ को फ़र्सूदा मज़ामीन से निस्बत ही नहीं मेरी ग़ज़लों में है पाकीज़ा चलन की ख़ुशबू यूँ तो वाबस्ता हूँ हर शोबा-ए-हस्ती से 'कमाल' मस्त रखती है मगर शेर-ओ-सुख़न की ख़ुशबू