बख़्शिश के लिए अपनी इतना ही तो सामाँ है भीगी हुई पलकें हैं भीगा हुआ दामाँ है उल्फ़त ही ज़माने में तस्कीन का सामाँ है इक लफ़्ज़ मोहब्बत ही हर दर्द का दरमाँ है ये ज़ीस्त ख़ुदा जाने किस बात पे नाज़ाँ है मिट्टी के घरौंदे में कुछ देर की मेहमाँ है सच्चों की अगर दुश्मन दुनिया है तो होने दो सच बोलने वालों का अल्लाह निगहबाँ है क्या जानिए चिंगारी कब कोई भड़क उट्ठे बारूद के ढेरों पर बैठा हुआ इंसाँ है ज़ाहिर से किसी शय के खाओ न 'सदा' धोका शो'ले में भी शबनम है क़तरे में भी तूफ़ाँ है