इतना है ज़िंदगी का तअ'ल्लुक़ ख़ुशी के साथ एक अजनबी हो जैसे किसी अजनबी के साथ सूरज उफ़ुक़ तक आते ही गहना गया यहाँ कुछ तीरगी भी बढ़ती रही रौशनी के साथ हुक्काम का सुलूक वही है अवाम से इब्न-ए-ज़ियाद का था जो इब्न-ए-अली के साथ अल्लाह रे तग़ाफ़ुल-ए-चारा-गरान-ए-वक़्त सुनते हैं दिल की बात मगर बे-दिली के साथ तबक़ों में रंग-ओ-नस्ल के उलझा के रख दिया ये ज़ुल्म आदमी ने किया आदमी के साथ