बनाएँ रेत पे घर अपना ये उमंग न हो कि मौज-ए-आब से हरगिज़ हमारी जंग न हो सितमगरी या तशद्दुद हमारा ढंग न हो ये हँसती खेलती दुनिया कटी पतंग न हो ख़ुद अपने ख़ून से तेहवार हम मनाते हैं ख़ुदा-रा ऐसी मसर्रत भरी तरंग न हो गिरेंगी उठती रहेंगी दीवारें आँगन की दिलों के बीच ख़लिश की अगर सुरंग न हो सद एहतिराम के क़ाबिल वो संग-ए-असवद है ज़मीं पे उस के मुक़ाबिल का कोई संग न हो कुशादा-ज़ेहन हो 'इक़बाल' तुम सभों के लिए किसी बशर के लिए भी निगाह-तंग न हो