बने जो शम्स-ओ-क़मर नंग-ए-आसमाँ निकले जिन्हें चराग़ समझते रहे धुआँ निकले ज़रा सी देर में इक रिंद हो गया मोमिन यक़ीं उसे भी न था हम भी ख़ुश-गुमाँ निकले न हम में जौहर-ए-'ग़ालिब' न उन में शान-ए-'ज़फ़र' तो किस क़ुसूर में कोई क़सीदा-ख़्वाँ निकले किसी की चाह में जब जाँ भी हम गँवा आए तो लुत्फ़-ए-यार के क़िस्से कहाँ कहाँ निकले मैं सोचता हूँ कि तारीख़ क्या कहेगी हमें सहर ब-दोश चले शब के पासबाँ निकले हदफ़ हमीं को बनाना कि मो'तबर ठहरो इस अंजुमन में अगर ज़िक्र-ए-दोस्ताँ निकले जो संग-ए-मील थे बे-आबरू हुए 'ख़ालिद' जो गर्द-ए-पा भी न थे मीर-ए-कारवाँ निकले