बरसर-ए-त'आरुफ़ थे एहतियात के साए वो भी कुछ न कह पाए हम भी कुछ न कह पाए दिन हसीं बहारों के यूँ भी हम को याद आए क़हक़हों के अफ़्साने आँसुओं ने दोहराए कितने ही भयानक हों उन से ख़ौफ़ क्या खाना साए हैं बहर-सूरत रौशनी के हमसाए दीद के तमाशे भी कम नहीं सराबों से दूर हम हुए उतने जितने वो क़रीब आए किस जगह हुआ है गुम कुछ पता नहीं चलता हम ज़मीर-ए-इंसाँ को हर तरफ़ पुकार आए रौशनी मिली लेकिन ये भी आप ने देखा धूप की तमाज़त से कितने फूल कुम्हलाए छीन ले कोई 'कैफ़ी' मुझ से मेरी तन्हाई साँप बन के डसते हैं मुझ को अब मिरे साए