क्या मोड़ 'अजब आया ये रिश्तों के सफ़र में मैं ख़ुद से जुदा हो गया इस राहगुज़र में मैं ने ही उभारे हैं ख़ुतूत उस के बदन के इक नुक़्ता-ए-मौहूम हूँ मैं जिस की नज़र में बैठा पस-ए-दीवार मैं ये सोच रहा हूँ कब रौज़न-ए-दीवार बदल जाता है दर में गुम कसरत-ए-अफ़राद में हो जाते हैं चेहरे इंसान की पहचान हो किस तरह नगर में आई न सहारे को इक आवाज़-ए-शनासा मैं डूब गया अपनी सदाओं के भँवर में मसरूर हूँ यूँ तर्क-ए-जहाँ कर के मैं 'कैफ़ी' दुनिया ही सिमट आई है गोया मिरे घर में