बस एक बार उठें सामना ही कर डालें वबाल-ए-जान है डर ख़ात्मा ही कर डालें क़ुबूलियत को सुना है कि ज़िद दुआ से है तो क्यूँ न ऐसा करें बद-दुआ' ही कर डालें खिसकते लम्हों से ये ज़िंदगी ने पूछ लिया हक़ीर हम हैं कि तुम फ़ैसला ही कर डालें निशात-ओ-कैफ़ के सामान अन-क़रीब कहाँ अब इख़्तिसार-ए-सफ़-ए-मुद्दआ' ही कर डालें इरादा कर जो लिया तर्क-ए-ख़ुद-कलामी का तो याद-ए-माज़ी का ग़म मकतबा ही कर डालें 'असर' ज़बान को दुश्वारियाँ भी हैं लाहिक़ सो एहतिमाम कोई दूसरा ही कर डालें