बयाबाँ से अक़ीदत थी बहुत थी बिछड़ कर तुझ से वहशत थी बहुत थी चुने फिर उम्र भर ये ज़र्द पत्ते हमें ग़म से मोहब्बत थी बहुत थी जला कर राख कर डाला है देखो वफ़ा में उस की हिद्दत थी बहुत थी हरे करती रही मैं ज़ख़्म सारे मुझे आहों से रग़बत थी बहुत थी बिखरना हो गया था लाज़मी यूँ तिरे लहजे में नख़वत थी बहुत थी