बज़्म में मुझ से मिला दे कोई परवाने को ख़ूब समझाएगा दीवाना ही दीवाने को साक़िया उज़्र न कर पीने दे रिंदों को यहीं कौन घर बाँध के ले जाएगा मयख़ाने को आप के हौसला-ए-दिल से तो मैं वाक़िफ़ हूँ इस भुलावे में न सुनिए मिरे अफ़्साने को ख़ाल-ए-रुख़ उस पे तिरे गेसू-ए-पुर-पेच का जाल मुर्ग़-ए-दिल क्यों न फँसे देख ले जब दाने को वहशी आख़िर को तो वहशी है न समझेगा कभी सारी दुनिया अगर आए उसे समझाने को क़िस्सा-ए-शाम-ए-अलम किस को सुनाए 'शब्बीर' पास तक कोई बिठाता नहीं दीवाने को