बे-इंतिहा हो क़ुर्ब मगर इस क़दर न हो हम जिस पे मर रहे हैं उसी को ख़बर न हो मौहूम सी सदा हो मगर गूँजती रहे इक आम सी दु'आ हो मगर बे-असर न हो शानों का ज़िक्र होते ही सर ढूँडते हैं लोग सर-गर्मी-ए-जहान की इतनी ख़बर न हो शा'इर ही खींच सकता है पानी पे वो लकीर ऐसी कि एक बूँद इधर से उधर न हो बस दो ही सूरतों में निगाहें हैं मुतमइन उन पर नज़र रहे या किसी पर नज़र न हो किस चाँद ने कहा था कि रातों को जागिए कब धूप ने कहा था कि सर पर शजर न हो इस गुमरही में ढूँड नई मंज़िलें 'अमित' अगला क़दम वहाँ हो जहाँ रहगुज़र न हो