डरा डरा के मिरे सारे डर निकालता है 'अजब ‘इलाज मिरा चारागर निकालता है अधूरे-पन की मुकम्मल दलील हूँ लेकिन कसर निकालने वाला कसर निकालता है तिरा ख़ुदा भी हो तुझ जैसा और दे तुझ को दरख़्त ऐसा जो गिन कर समर निकालता है सरों पे हाथ ज़ेहानत बढ़ा नहीं सकता ये और बात कि अंदर का डर निकालता है किसी की याद भी अब ता-सहर नहीं रहती ख़याल है कि पहर-दो-पहर निकालता है फ़ज़ा कोई भी हो फ़ितरत बदल नहीं सकती क़फ़स में क़ैद परिंदा भी पर निकालता है वो ग़ैर मौसमी बरसात याद है तुम को और एक शख़्स जो खिड़की से सर निकालता है 'अमित' वो कार-ए-सियासत के मसअले ये हुजूम जो हल निकाल न पाए ख़बर निकालता है