बे-ख़तर रंजिश-ए-दिलदार उठाई जाए जैसे दीवार पे दीवार उठाई जाए दुश्मनी और बढ़ाने का इरादा जो नहीं रख के क्यों पाँव पे दस्तार उठाई जाए थक गया हूँ मैं उठाते हुए आवाज़ों को सोचता हूँ कोई तलवार उठाई जाए रोज़ वो वस्ल के बदले में अलम देता है क्यों न ये ख़्वाहिश-ए-बे-कार उठाई जाए तुझ को भी इल्म नहीं है कि तिरी चौखट पर ख़िल्क़त-ए-शहर है बेज़ार उठाई जाए दूसरी बार यक़ीं इश्क़ पे आता है किसे ये क़सम वो है जो इक बार उठाई जाए रश जो बढ़ जाए ख़रीदारियाँ कम होती हैं कुछ न कुछ रौनक़-ए-बाज़ार उठाई जाए बादबानों के सहारों पे रहो मत 'ए'जाज़' है हवा बंद तो पतवार उठाई जाए