बे-नियाज़ाना बहकना बे-ख़ुदी का हुस्न है तौबा कहते हैं जिसे वो मय-कशी का हुस्न है रिंद हम भी हैं मगर जाम-ओ-सुबू से बे-नियाज़ नश्शे का इदराक ही तिश्ना-लबी का हुस्न है बे-इरादा मान जाना बाइ'स-ए-तस्कीं सही बिल-इरादा रूठ जाना बरहमी का हुस्न है होश में सज्दा दिखावा है कोई सज्दा नहीं सर झुका कर भूल जाना बंदगी का हुस्न है हुस्न-ए-फ़ितरत कब हुआ नीलाम इतना सोचिए जिंस-ए-अर्ज़ां जिस को कहिए आदमी का हुस्न है क्या हुआ जो हुस्न वाले ही 'वसी' से दूर दूर कब अँधेरों की नज़र में रौशनी का हुस्न है