बे-क़रारी सी बे-क़रारी है साँस लेना भी अब तो भारी है मौत को किस लिए करें बदनाम ज़िंदगी ज़िंदगी से हारी है आदमी इस से बच नहीं सकता वक़्त सब से बड़ा शिकारी है क्या हुआ गर नहीं ख़ुशी अपनी ग़म की जागीर तो हमारी है शक्ल अपनी न देखिए इस में आइना जो चमक से आरी है शाम के रंज को भी याद रखे चढ़ते सूरज का जो पुजारी है गुल्सिताँ आप का सही लेकिन ज़िंदगी किस ने उस पे वारी है