बे-रुख़ी ओ बेवफ़ा अच्छी नहीं दिल-जलों की बद-दुआ' अच्छी नहीं ग़ैर भी तो इश्क़ का भरता है दम सिर्फ़ हम पर ही जफ़ा अच्छी नहीं देख कर ग़मगीं मुझे कहते हैं वो क्यों तबीअत आज क्या अच्छी नहीं पहले ही दिल उन के हैं टूटे हुए जाँ-निसारों से दग़ा अच्छी नहीं बोसा लेने पर ख़फ़ा हो कर कहा देखिए ऐसी ख़ता अच्छी नहीं ले के दिल करते हो वापस किस लिए क्या सबब है जिंस क्या अच्छी नहीं फिर वही ज़िक्र-ए-अदू हर बात में आप की बस ये अदा अच्छी नहीं किस लिए करते हो पर्दा वस्ल में ऐसे मौक़ों पर हया अच्छी नहीं दिल न माने तो बताओ क्या करें हम ने माना इल्तिजा अच्छी नहीं भाँप जाएगा ज़माना देखिए इस क़दर हम से हया अच्छी नहीं क्या ज़रूरत वो ख़रीदें किस लिए कहते हैं जिंस-ए-वफ़ा अच्छी नहीं रूठना अलबत्ता कुछ दिलचस्प है यूँ तो कोई भी जफ़ा अच्छी नहीं रात दिन 'हाजिर' बुतों का ज़िक्र हो कोई बात इस के सिवा अच्छी नहीं