है फैली चार-सू ये तीरगी क्या जो शम्अ-ए-आरज़ू थी बुझ गई क्या बनाना और बना कर तोड़ देना जुनूँ-अंगेज़ है शीशागरी क्या मैं अपना आप दुश्मन हो गया हूँ करेगा अब कोई चारागरी क्या ख़फ़ा मुझ से जो मेरी ज़िंदगी है अजल को भी है कम नाराज़गी क्या न जाने आज क्यों लुटने का ग़म है कोई दौलत हमारे पास थी क्या गुलों तक आ ही पहुँचा दस्त-ए-गुल-चीं चमन की आबरू बाक़ी रही क्या पता जिस को मिला तेरा वो ग़म है कमाल-ए-आगही है बे-ख़ुदी क्या यहाँ तो आग सी दिल में लगी है लगी दिल की है कोई दिल-लगी क्या तकब्बुर से किसी को क्या मिला है हबाब-ए-बहर की दरिया-दिली क्या न रास आएगी 'मंज़र' शेर-गोई कि तुम क्या और तुम्हारी शायरी क्या