बे-कसी रुख़ बदल ही जाती है आह मुँह से निकल ही जाती है हुस्न हो ऐश हो जवानी हो धूप आख़िर को ढल ही जाती है है ग़म-ए-इश्क़ मुस्तक़िल वर्ना हर बला सर से टल ही जाती है फूल करते रहें जतन लाखों बू चमन से निकल ही जाती है जानते हम भी हैं मआल-ए-नशात हसरत-ए-दिल मचल ही जाती है मेरी मजबूरियों पे उन की नज़र हाथ दर-पर्दा मल ही जाती है देख कर कामरानी-ए-तदबीर चाल क़िस्मत भी चल ही जाती है ठोकरें खा के फ़ितरत-ए-इंसान राह-ए-ग़म में सँभल ही जाती है नज़्म भी तर्जुमान-ए-दिल है 'अदीब' पेश लेकिन ग़ज़ल ही जाती है