परेशानी में इज़हार-ए-परेशानी से क्या हासिल भरे बाज़ार में ख़ुद अपनी अर्ज़ानी से क्या हासिल मुझे हर मंज़िल-ए-मस्ती से हँस हँस कर गुज़रना है मिटा दे जो मिरी हिम्मत उस आसानी से क्या हासिल बग़ैर-ए-जब्र-ओ-क़ुव्वत झुक नहीं सकता जो इक सर भी तो फिर ऐसी जहाँगीरी जहाँबानी से क्या हासिल हुजूम-ए-बर्क़-ओ-बाराँ हो नुज़ूल-ए-क़हर-ओ-तूफ़ाँ हो फ़ज़ा-ए-आफ़ियत में बाल-जुम्बानी से क्या हासिल दिल-ए-बर्बाद से पैदा नया दिल हो नहीं सकता अब आँसू पोंछिए भी अब पशेमानी से क्या हासिल तरसते हैं दर-ओ-दीवार भी अब उन के जलवों को मुझे ऐ ख़ाना-ए-दिल तेरी वीरानी से क्या हासिल क़फ़स हो या नशेमन कोई हम-आहंग हो वर्ना 'अदीब' ऐसी फ़ुग़ाँ ऐसी ग़ज़ल-ख़्वानी से क्या हासिल