बे-समर मौसमों में जन्मी हूँ ज़र्द पत्तों का दुख समझती हूँ रफ़्तगाँ भेद ओढ़ लेते हैं अपने अब्बा की क़ब्र ढूँढती हूँ मेरा बचपन बिछड़ गया मुझ से इक सहेली से रूठ बैठी हूँ ख़ामुशी की गुफाओं में अक्सर अपनी आवाज़ सुन के सहमी हूँ घर की दीवार में ही रहता है एक साए से डरती रहती हूँ मुझ को बारिश अज़ीज़ है लेकिन खिड़कियाँ बंद कर के रोती हूँ ख़्वाब हैं या ख़याल की दुनिया रफ़्तगाँ के क़रीब रहती हूँ वो जो इक बेवफ़ा की ख़ातिर थे अब उन्ही आँसुओं पे हँसती हूँ आप ही अपनी माँ रही हूँ 'सहर' माँ ही जैसी दिखाई देती हूँ