बेवफ़ा था फिर भी दुनिया उस की शैदाई हुई ग़म तो ये है बस मिरे हिस्से में तन्हाई हुई रोज़-ए-महशर जिस घड़ी आया जो नामा हाथ में हाए कैसी उस भरी महफ़िल में रुस्वाई हुई मुब्तला-ए-ज़ो'म-ए-शोहरत हसरत-ए-नाम-ओ-नुमूद हो गया इंसान कैसा सल्ब बीनाई हुई मुनकिर-ए-इंसान को दुनिया समझती है हक़ीर आजिज़ी की इस जहाँ में कब पज़ीराई हुई बदलियों की ओट में यूँ छुप गया माह-ए-तमाम जैसे दुल्हन चेहरा ढक बैठी हो शर्माई हुई मेरी हर इक बात का बस एक मतलब है 'अना' जिस के मतलब चार हों ऐसी न गोयाई हुई