ब-फ़ैज़-ए-इश्क़ हर्फ़-ए-ऐन पर डटे रहे हैं हम शुरूअ' से शुरूअ' ठीक बाँधते रहे हैं हम गली में कोई था नहीं जो कहता जागते रहो इसी लिए तमाम रात जागते रहे हैं हम बुझे बुझे से इस लिए अजीब लग रहे हो तुम बड़े क़रीब से ये आग तापते रहे हैं हम हमें है और दस्तरस सनम-गरी के काम पर मुजस्समों को पत्थरों में ढालते रहे हैं हम निकल गया था वो हसीन अपनी ज़ुल्फ़ बाँध कर हवा की बाक़ियात को समेटते रहे हैं हम