भरोसा हर किसी का खो चुके हैं सर-ए-बाज़ार रुस्वा हो चुके हो चुके हैं ग़ुलामी कर रहे हैं ख़्वाहिशों की दिलों की हुक्मरानी खो चुके हैं तवक़्क़ो है मोहब्बत के समर की अगरचे फ़स्ल-ए-नफ़रत बो चुके हैं न रख इन से मदद की आस कोई ज़मीर इन सब के मुर्दा हो चुके हैं भला बाहर से कैसे साफ़ होंगे ये जब अंदर से मैले हो चुके हैं सदाक़त भाई-चारा प्यार उख़ुव्वत ये सब माज़ी के क़िस्से हो चुके हैं जहाँ पर कुफ़्र हावी हो रहा है ये लगता है मुसलमाँ सो चुके हैं नजात अब तो मिले रंज-ओ-अलम से दुखों का बोझ काफ़ी ढो चुके हैं जो मौत आए तो राहत हो मयस्सर परेशाँ ज़िंदगी से हो चुके हैं मगर वो संग-दिल अब तक न पिघला कई बार उस के आगे रो चुके हैं नतीजे में हम अपनी ग़फ़लतों के वक़ार ऐ 'शाद' अपना खो चुके हैं