साया पड़ते ही ज़मीं का माह पर चल पड़े सब दहरियत की राह पर बारहा उस को किया आगाह पर दिल किसी सूरत न आया राह पर ये भी देखा है हमारी नस्ल ने कट गए सर कितने इक अफ़्वाह पर हैं जो असरार-ए-ज़मीं से ना-बलद तब्सिरा करते हैं मेहर-ओ-माह पर रेज़ा रेज़ा हो गया रिश्तों का पुल जो टिका था सिर्फ़ रस्म-ओ-राह पर हम सुख़न-दानों को माल-ओ-ज़र से क्या हम तो बक जाते हैं सिर्फ़ इक वाह पर इक इशारा तो ज़रा करते कभी जान दे देते तुम्हारी चाह पर जीतनी बाज़ी है जो शतरंज की रख निगाहें हर घड़ी तू शाह पर क्यों किसी के आगे फैलाऊँ मैं हाथ मेरा ईमाँ है मिरे अल्लाह पर कान कोई क्यों नहीं धरता यहाँ 'शाद' इस दिल से निकलती आह पर