भूल चुका जो तुझ को ऐ दिल याद में उस की क्यों रोता है दुनिया का दस्तूर यही है कोई किसी का कब होता है सुब्ह की जानिब देख अभी से रात के ग़म में क्या रोता है दुनिया की तो रस्म यही है पाता वही है जो खोता है जिस को तमअ' न माल-ओ-ज़र की जिस को चाह न लाल-ओ-गुहर की पैर पसारे घर में अपने कितने सुख से वो सोता है ये दुनिया कब मीत किसी की ये क्या जाने प्रीत किसी की नाहक़ इस के फेर में पड़ कर जान को अपनी तू खोता है क्यों ढूँडे तू मुल्ला पंडित क्यों भटके तू मंदिर मस्जिद पछतावे का तेरा आँसू पापों को सारे धोता है जिस को 'नज़र' ख़ू जौर-ओ-जफ़ा की उस से न रख उम्मीद वफ़ा की मूरख है जो बंजर में तू गेहूँ के दाने बोता है