दुनिया-ए-बे-लिबास है इस इंतिज़ार में देखे हमें भी पैरहन-ए-तार-तार में लाता है कौन शोर-ए-नफ़स को शुमार में सब जी रहे हैं आलम-ए-ना-पाएदार में भटके तमाम उम्र तो ये मुन्कशिफ़ हुआ हम हर्फ़-ए-राएगाँ थे ख़त-ए-इंतिशार में आँखें न थीं तो वो भी नज़र से उतर गए क्या क्या हसीन ख़्वाब थे इस जल्वा-ज़ार में सूरज ने दिन तमाम किया थक के सो गया मैं घूमता रहा मगर अपने मदार में वहम-ओ-गुमाँ की तेज़ हवाएँ हैं मुश्तइ'ल रौशन है इक चराग़ दर-ए-ए'तिबार में काटे थे उस ने शग़्ल-ए-समाअ'त में रात-दिन क्या था हमारे तज़्किरा-ए-कम-अयार में जाएँ किधर कि राह कोई सूझती नहीं रस्ते में सब अटे हुए गर्द-ओ-ग़ुबार में मुद्दत हुई मैं नींद से जागा नहीं 'ज़िया' किस ने मुझे उछाल दिया तीरा ग़ार में