भूले कब लज़्ज़त असीरी की चमन को देख कर याद आती है हमें ग़ुर्बत वतन को देख कर हक़-ब-जानिब है हमारे तो कि आईने में वो बोसा ले लेता है आप अपने दहन को देख कर सूँघने वाले तुम्हारी ज़ुल्फ़-ए-अम्बर-फ़ाम के होते हैं चीं-बर-जबीं मुश्क-ए-ख़ुतन को देख कर जी में है अब बे-सुतूँ में जा के रोऊँ ख़ूब मैं नक़्श-ए-शीरीं-ओ-मज़ार-ए-कोहकन को देख कर वो सही बाला जो गुल याद आ गया गुल-गश्त में लग गई हिचकी मुझे सर्व-ए-चमन को देख कर मत किया कर आशिक़ों की ख़ाक को यूँ पाएमाल रस्म-ए-इश्क़ उठ जाएगी तेरे चलन को देख कर तीरा-रोज़ी याँ तलक तो है पर अब खाती है रश्क शाम-ए-ग़ुर्बत है मिरी सुब्ह-ए-वतन को देख कर गुल गरेबाँ चाक करते हैं चमन में रश्क से बर में शबनम के तुम्हारे पैरहन को देख कर क़स्द करता हूँ हम-आग़ोशी का लेकिन रोज़-ए-वस्ल जी निकल जाता है उस नाज़ुक बदन को देख कर चहचहे करने गए सब भूल अब ख़ामोश हैं मुर्ग़-ए-गुलशन मेरे अंदाज़-ए-सुख़न को देख कर उस से मिलने को तो 'नामी' मना हम करते नहीं दीजियो लेकिन दिल उस पैमाँ-शिकन को देख कर