भूली-बिसरी यादों की बारात नहीं आई इक मुद्दत से हिज्र की लम्बी रात नहीं आई आती थी जो रोज़ गली के सूने नुक्कड़ तक आज हुआ क्या वो परछाईं सात नहीं आई मुझ को तआ'क़ुब में ले आई इक अंजान जगह ख़ुश्बू तो ख़ुश्बू थी मेरे हात नहीं आई इस दुनिया से उन का रिश्ता आधा-अधूरा है जिन लोगों तक ख़्वाबों की सौग़ात नहीं आई ऊपर वाले की मन-मानी खलने लगी है अब मेंह बरसा दो-चार दफ़ा बरसात नहीं आई