करम ब-नाम-ए-सितम उस पे बे-हिसाब हुआ जो लुट गया रह-ए-उल्फ़त में कामयाब हुआ नज़र नज़र ने पिन्हाया लिबास-ए-तार-ए-नज़र पस-ए-नक़ाब हुआ जो भी बे-नक़ाब हुआ वो सरफ़राज़ हुआ कारोबार-ए-उल्फ़त में बरा-ए-मश्क़-ए-जफ़ा जिस का इंतिख़ाब हुआ न ज़िंदगी ने क़ुबूला न मौत ने पूछा ख़राब-हाल ज़माना बहुत ख़राब हुआ उतर गए जो किसी की हँसी के सदक़े में उन आँसुओं का हुआ तो कहाँ हिसाब हुआ ये क्या कि अपनी भी पहचान हो गई मुश्किल बिल-आख़िर अपनी निगाहों से भी हिजाब हुआ उतर सका जो खरा वक़्त की कसौटी पर मआल-ए-कार वो ज़र्रा भी आफ़्ताब हुआ दिल-ओ-नज़र की बहारों के रुख़ पलटते ही 'रिशी' गुलाब का चेहरा भी आब आब हुआ