ख़ुश्क खेती है मगर उस को हरी कहते हैं कम-निगाही को भी वो दीदा-वरी कहते हैं फ़िक्र-ए-रौशन को वो शोरीदा-सरी कहते हैं यानी सूरज को चराग़-ए-सहरी कहते हैं जो तिरे दर से उठा फिर वो कहीं का न रहा उस की क़िस्मत में रही दर-बदरी कहते हैं कितनी बे-रहम है फ़ितरत उन्हें मालूम नहीं जो उसे कारगह-ए-शीशागरी कहते हैं हुस्न के बाब में 'अकबर' की सनद काफ़ी है हम भी हर इक बुत-ए-कमसिन को परी कहते हैं रूह-ए-सय्यद पे ख़ुदा जाने गुज़र जाएगी क्या आम अलीगढ़ में हुई कम-नज़री कहते हैं