बिकती नहीं फ़क़ीर की झोली ही क्यूँ न हो चाहे रईस-ए-शहर की बोली ही क्यूँ न हो एहसान-ए-रंग ग़ैर उठाते नहीं कभी अपने लहू से खेल वो होली ही क्यूँ न हो सच तो ये है कि हाथ न आना कमाल है दुनिया से खेल आँख-मिचोली ही क्यूँ न हो है आसमाँ वसीअ ज़मीं तंग ही सही तामीर कर कहीं कोई खोली ही क्यूँ न हू हक़ पर जो है वही सर ओ शाना बुलंद है है वर्ना बे-बिसात वो टोली ही क्यूँ न हो दरिया की क्या बिसात कि मुझ को डुबो सके कश्ती कहीं कहीं मिरी डोली ही क्यूँ न हो तल्ख़ी में भी मज़ा है जो तू ख़ुश-मज़ाक़ है पक जाए तो भली है निमोली ही क्यूँ न हो कुछ तो हदीस 'ख़ैर' समझने के कर जतन हर-चंद बे-मज़ा मिरी बोली ही क्यूँ न हो