ब-ईं क़ैद-ए-ख़मोशी भी ग़ज़ल-ख़्वाँ हमा-तन हम हैं न पाबंद-ए-ज़बाँ हम हैं न मजबूर-ए-सुख़न हम हैं गुलिस्ताँ में शरीक-ए-सोहबत-ए-अहल-ए-चमन हम हैं बस इतनी बात पर क्यूँ क़ाबिल-ए-दार-ओ-रसन हम हैं जवाब-ए-ज़ुल्म देती जा रही है अपनी मज़लूमी इधर तलवार रंगीं है उधर रंगीं-कफ़न हम हैं ख़िज़ाँ से कब की बुनियाद-ए-गुलिस्ताँ गिर चुकी होती मगर ये ख़ैरियत है ज़ेर-ए-दीवार-ए-चमन हम हैं नशेमन फूँक कर समझें कि सब कुछ फूँक डाला है हिजाब-ए-गुल में बैठे बिजलियों पर ख़ंदा-ज़न हम हैं अगरचे बज़्म में हम भी हैं लेकिन फ़र्क़ कितना है वक़ार-ए-अंजुमन तुम हो वबाल-ए-अंजुमन हम हैं