ब-ज़ाहिर तू पराया भी नहीं है वो अपना हो के भी अपना नहीं है मिरे लब से हँसी छीनी थी जिस ने सुना है वो भी अब हँसता नहीं है मिरी आवारगी पे रास्तों ने मुझे पूछा कोई तेरा नहीं है ज़माना मुंतज़िर है उस लहू का जो मेरी आँख से टपका नहीं है मुझे तो ख़ौफ़ अपने आप से है किसी से डर मुझे लगता नहीं है हुआ जो सो हुआ अब छोड़ भी दो बहुत भी सोचना अच्छा नहीं है ख़ता अपनी भी मानो कुछ 'समीना' उसी का दोष तो सारा नहीं है