ब-ज़ोम-ए-अक़्ल ये कैसा गुनाह मैं ने किया इक आईना था उसी को सियाह मैं ने किया ये शहर-ए-कम-नज़राँ ये दयार-ए-बे-हुनराँ किसे ये अपने हुनर का गवाह मैं ने किया हरीम-ए-दिल को जलाने लगा था एक ख़याल सो गुल उसे भी ब-यक सर्द आह मैं ने किया वही यक़ीन रहा है जवाज़-ए-हम-सफ़री जो गाह उस ने किया और गाह मैं ने किया बस एक दिल ही तो है वाक़िफ़-ए-रुमूज़-ए-हयात सो शहर-ए-जाँ का उसे सरबराह मैं ने किया हर एक रंज उसी बाब में किया है रक़म ज़रा सा ग़म था जिसे बे-पनाह मैं ने किया ये राह-ए-इश्क़ बहुत सहल हो गई जब से हिसार-ए-ज़ात को पैवंद-ए-राह मैं ने किया ये उम्र की है बसर कुछ अजब तवाज़ुन से तिरा हुआ न ही ख़ुद से निबाह मैं ने किया ख़िरद ने दिल से कहा तू जुनूँ-सिफ़त ही सही न पूछ उस की कि जिस को तबाह मैं ने किया