ज़ख़्म सुनते हैं लहू बोलता है चाक चुप है तो रफ़ू बोलता है ख़ामुशी ऐसी कि देखी न सुनी हर तरफ़ आलम-ए-हू बोलता है ख़्वाब समझूँ कि हक़ीक़त इस को इक परिंदा लब-ए-जू बोलता है मैं कि मर कर भी अभी ज़िंदा हूँ जिस्म पर हर सर-ए-मू बोलता है अब तो इक नाम अता कर यारब कस-ओ-ना-कस मुझे तू बोलता है वो नमाज़ें कि अदा हो न सकीं अब भी सहरा में वुज़ू बोलता है