बुझती आँखों से मिरी ख़्वाब कहाँ जाता है अब मुझे ले के ये सैलाब कहाँ जाता है रूह तो कब से परेशाँ है नुमू की ख़ातिर मुश्त भर ख़ित्ता-ए-शादाब कहाँ जाता है अपनी हस्ती में तो तूफ़ान खिंचे आते हैं है जो पाँव में वो गिर्दाब कहाँ जाता है उस की तक़दीर में लिक्खा है नमी में रहना छोड़ कर आब को सुरख़ाब कहाँ जाता है अपनी तहज़ीब का हम पास बहुत रखते हैं ग़ुस्से में लहजा-ए-आदाब कहाँ जाता है जागना मेरी निगाहों का मुक़द्दर है 'निसार' आँख से जल्वा-ए-महताब कहाँ जाता हे