उन को अपनी ख़बर नहीं होती काश होती मगर नहीं होती सुब्ह-ए-इशरत तो कट गई लेकिन शाम-ए-ग़म मुख़्तसर नहीं होती आप मुझ से न रूठते तो मिरी दुनिया ज़ेर-ओ-ज़बर नहीं होती यूँही जो सब के हाथ आ जाए अन्क़ा बे-बाल-ओ-पर नहीं होती ख़ार बो देता इस गली में अगर ये तिरी रहगुज़र नहीं होती मेरे मरने की फिर दुआ माँगें हर दुआ बे-असर नहीं होती