चारों जानिब आइने हैं बोलता कोई नहीं दे रहा हूँ दस्तकें दर खोलता कोई नहीं इक यक़ीन-ओ-बे-यक़ीनी का ख़ला है दरमियाँ लोग बहरे हो गए या बोलता कोई नहीं गर्म आवाज़ों की रुत में कितने झरनों जैसे नाम वो नहीं तो कान में रस घोलता कोई नहीं घोंसले उजड़े थे इक दिन आँधियों में और अब ख़्वाहिश-ए-पर्वाज़ में पर तोलता कोई नहीं जुगनूओं को क़ैद से आज़ाद कर देता है वो शाख़-ए-शब पर जब सितारा डोलता कोई नहीं कौन किस को जानता है आइनों के शहर में हम वो पत्थर हैं कि जिन को मोलता कोई नहीं ये तो बस हम ने गँवाए रेत में गौहर 'कफ़ील' ख़ाक में वर्ना तो मोती रोलता कोई नहीं