ढलते हुए सूरज के सहारे नहीं लेते चाहत में कभी धूप किनारे नहीं लेते अपने ही दर-ओ-बाम की तज़ईन की ख़ातिर अग़्यार की बस्ती से इशारे नहीं लेते जल जाने का अंदेशा जिन्हें होता है लाहक़ वो फूल से हाथों में शरारे नहीं लेते बर्फ़ाब में रखते हैं जो ख़्वाबों के नशेमन वो लोग कभी चाँद सितारे नहीं लेते कब तक कोई ख़्वाहिश के खिलौनों से बहलता फट जाएँ तो बच्चे भी ग़ुबारे नहीं लेते जितना भी है ख़ाशाक को मिट्टी से शरफ़ है दरवेश कभी महल-मनारे नहीं लेते अच्छा है 'कफ़ील' आँख के मंज़र अभी देखो दम तोड़ती लहरों के नज़ारे नहीं लेते