चाहे काँधों पे आसमाँ रख दो मुझ पे कोई भी इम्तिहाँ रख दो कौन कहता है हिज्र का क़िस्सा वस्ल के ऐन दरमियाँ रख दो मेरे ख़्वाबों की किर्चियाँ छोड़ो आइना सामने वहाँ रख दो ज़िंदगी और कुछ निकल आई तुम रिवायात-ए-रफ़्तगाँ रख दो ख़्वाब में भी फ़रार मुमकिन है मेरे बिस्तर पे बेड़ियाँ रख दो