चाहे मिट्टी का दिया था ये जलाए रक्खा ख़ुद से जो अह्द किया था सो निभाए रक्खा मेरी वाबस्तगी-ए-बाग़ है ईमाँ मेरा बे-समर शाख़ को सीने से लगाए रक्खा क़द्द-ओ-क़ामत का तअ'य्युन सर-ए-सहरा कैसा फिर भी सायों ही को मेआ'र बनाए रक्खा मैं ने तावीज़ समझ कर जिसे पहना था कभी जाने उस नक़्श ने क्यों मुझ को डराए रक्खा ना-रसाई के समुंदर की सदाएँ सुन कर और इक नक़्श नया हम ने बनाए रक्खा हर्फ़ की धूप अगर सुब्ह-ए-तमाज़त न बनी अपने ही जिस्म को दीवार बनाए रक्खा मैं कहाँ और कहाँ शहर-ए-क़सीदा यारो 'सब्र' का नौहा मगर लब पे सजाए रक्खा