दिल ने धीरे से कोई लफ़्ज़ कहा शाम के बाद एक दर बंद हुआ एक खुला शाम के बाद तेरी यादों का दरीचा जो खुला शाम के बाद तीर बरसाने लगी सर्द हवा शाम के बाद दश्त-ए-एहसास में सन्नाटा ये कैसा फैला किसी आहट ने तआ'क़ुब न किया शाम के बाद दिन मशक़्क़त के जहन्नुम में गुज़ारा मैं ने ढूँडने निकला हूँ अब ताज़ा हवा शाम के बाद दिन को सामान-ए-तमाशा था ज़माने के लिए अपनी तन्हाई का अंदाज़ा हुआ शाम के बाद इक फ़क़त लम्हा-ए-मौजूद है मेरा होना ख़ुद मिरी ज़ात पे ये उक़्दा खुला शाम के बाद एक मिट्टी का दिया उस पे तहय्युर कैसा देखने आई जिसे बाद-ए-सबा शाम के बाद 'सब्र' जब इस्म-ए-मोहम्मद का उजाला माँगा मेरे सीने पे खुला ग़ार-ए-हिरा शाम के बाद