उसे ये वहम वो शातिर बड़ा है अभी हम से कहाँ पाला पड़ा है वो ख़ुद ख़ामोश ही कब हो रहा था तमाँचा वक़्त ने मुँह पर जड़ा है दलीलें देते देते थक चुका मैं वो जाहिल अपनी ही ज़िद पर अड़ा है उधर कुछ अहल-ए-हक़ सीना-सिपर हैं इधर बातिल का इक लश्कर खड़ा है तिरी ताज़ीम और कैसे करूँ मैं तिरे क़दमों में मेरा सर पड़ा है मैं कैसे छोड़ दूँ अब हाथ उस का मिरी ख़ातिर वो दुनिया से लड़ा है ख़ुदाई का जिसे दावा था कल तक वो अपनी क़ब्र में औंधा पड़ा है उसे क्यों आइना दिखला रहे हो ये बे-ग़ैरत बड़ा चिकना घड़ा है लहू रिसता है मेरे दिल में अब तक तुम्हारी याद का ख़ंजर गड़ा है