चलाई साँस की आरी जवानी काट दी सारी निकाला वक़्त पर ग़ुस्सा घड़ी दीवार पर मारी ये गुम्बद जैसी पगड़ी में बंधी है सोच दरबारी कई आते हैं जाते हैं अजी काहे की ग़म-ख़्वारी हमारे गाँव का मौसम दरख़्तों की रिया-कारी छुपाया है बहुत ख़ुद को दिखाई है समझदारी बहुत ही तंग है हम पर बदन की चार-दीवारी