चलेंगे थोड़ा दम ले कर ज़रा सूरज निकलने दो बदलने दो ज़रा मंज़र ज़रा सूरज निकलने दो सफ़-ए-मातम बिछी है क़त्ल-ए-शब पर बज़्म-ए-अंजुम में कि शायद हो बपा महशर ज़रा सूरज निकलने दो अंधेरे चँद लम्हों में बिसात अपनी उठा लेंगे बहेगा नूर सड़कों पर ज़रा सूरज निकलने दो हमें ता'बीर भी तो देखनी है अपने ख़्वाबों की मिरे हमदम मिरे दिलबर ज़रा सूरज निकलने दो संपोले तीरगी के सरसराते फिर रहे होंगे अभी हर सम्त सड़कों पर ज़रा सूरज निकलने दो कहाँ हैं वो नई सुब्हों की ताबीरों के सौदा-गर कहा करते थे जो अक्सर ज़रा सूरज निकलने दो अभी खुल जाएगा 'राही' भला क्या है बुरा क्या है वो रहज़न है कि है रहबर ज़रा सूरज निकलने दो