इक ए'तिदाल अज़ल-ता-अबद ज़रूरी है हर एक शय में तवाज़ुन अशद ज़रूरी है अगर बिगाड़ न आए बताओगे क्यूँकर हर इक क़ुबूल से पहले तो रद ज़रूरी है वो ज़ुल्म-ओ-जौर हो या सब्र-ओ-ज़ब्त जो भी हो मियाँ सभी के लिए एक हद ज़रूरी है गुज़ारिशात पे भी जब नवाज़िशात न हों मुतालिबात में तब शद्द-ओ-मद ज़रूरी है वो सब कि जिस की ज़रूरत कभी न समझी गई हमारे दौर में वो सद-ब-सद ज़रूरी है सभी के साथ मुनासिब नहीं है एक सी बात अज़ीज़ो तफ़रक़ा-ए-नेक-ओ-बद ज़रूरी है जो चाहते हो कि फ़न पर हो दस्तरस 'राही' निगाह-ए-नक़्द-ओ-शुऊ'र-ओ-ख़िरद ज़रूरी है