चमक में बर्क़ नहीं ज़ौ में आफ़्ताब नहीं वो आइना है तिरा जिस में ख़ाक-ए-आब नहीं सुबू-ओ-जाम हैं ख़ाली और इज़्तिराब नहीं तिरी नज़र तो है साक़ी अगर शराब नहीं जहान-ए-इश्क़ में इस से बड़ा अज़ाब नहीं कि लाख जल्वे हैं और देखने की ताब नहीं हक़ीक़त-ए-सक़र-ओ-ख़ुल्द क्यों समझ न सकूँ जनाब-ए-शैख़ मैं मस्त-ए-मय-ए-सवाब नहीं ग़लत कि शग़्ल में मय-ख़्वार कम है सूफ़ी से ये शग़्ल-ए-जाम मगर शग़्ल-ए-आफ़्ताब नहीं ख़ुदा को सौंप न दूँ क्यों सहीफ़ा-ए-अरमाँ दुआ-ए-वक़्त-ए-सहर भी तो कामयाब नहीं रुमूज़-ए-इश्क़ से वाक़िफ़ हो किस तरह वाइज़ ये वो किताब है जो दाख़िल-ए-निसाब नहीं तिरे करम का भरोसा है दावर-ए-महशर यहाँ तो पुर्सिश-ए-आमाल का जवाब नहीं हज़ार पर्दा-ए-अरमाँ हैं दिल के शीशे पर नहीं नहीं तिरी तस्वीर बे-नक़ाब नहीं नशात-ख़ाना-ए-आलम में उम्र यूँ गुज़री कभी शराब नहीं और कभी कबाब नहीं नियाज़-मंद जो पहुँचे तो किस तरह पहुँचे हरीम-ए-नाज़ में नाला भी बारयाब नहीं हरम को जाएँ तो क्या जाएँ हज़रत-ए-'शाग़िल' वहाँ रबाब नहीं शाहिद-ओ-शराब नहीं