चाँद जब मेरी छत पे आता है हर दिए को गले लगाता है जौर-ओ-ज़ुल्म-ओ-सितम की ज़ुल्मत में सब्र का जुगनू जगमगाता है ग़म के सूरज की तेज़ किरनों से दिल का तालाब सूख जाता है नींद उड़ जाती है सियासत की जब क़लम इंक़लाब लाता है क्या क़रीब आ गई मिरी मंज़िल क्यों क़दम मेरा डगमगाता है वो मिरा अक्स-ए-ए'तिबार है जो तेरी आँखों में झिलमिलाता है कौन हर रोज़ दर्द का गुल-दान अश्क के फूलों से सजाता है किस ने टूटे दिलों को जोड़ दिया शहर में किस को फ़न ये आता है अपने दरबार में 'क़मर' बादल रोज़ दरिया को क्यों बुलाता है