चंद लम्हे जो इंतिज़ार के हैं कर्ब के और इंतिशार के हैं शाख़-ए-गुल यूँ कभी झुलसती नहीं ये करम मौसम-ए-बहार के हैं जो दिए टिमटिमा रहे हैं अभी मेरे उजड़े हुए दयार के हैं अब कहीं कुछ दिखाई दे कैसे सारे मंज़र धुएँ ग़ुबार के हैं कहाँ जा कर सकूँ तलाश करूँ हर जगह वक़्त ख़लफ़िशार के हैं वो किसी काम के नहीं हैं 'अता' नाम उन के फ़क़त शुमार के हैं