चराग़-ए-शाम ही तन्हा नहीं है हवा मैं ने भी घर देखा नहीं है वो बादल है मगर इस दश्त-ए-जाँ पर अभी दिल खोल कर बरसा नहीं है मोहब्बत इक हिसार-ए-बे-निशाँ है लहू में दायरा बनता नहीं है बिखरती जा रही हूँ और ख़ुश हूँ सिमटने में कोई सच्चा नहीं है ख़ोशा ऐ रू-ए-शाख़-ए-सब्ज़ तुझ पर सराब-ए-आईना खुलता नहीं है तुझे देखा है जब से शाम-आलूदा मिरी आँखों में दिन उतरा नहीं है मैं क्यूँ देखूँ हुजूम-ए-महर-ओ-मह को मिरी तन्हाइयों में क्या नहीं है नहीं जाते हैं दुख अब आ के घर से कि ये आना तिरा आना नहीं है भटक जाएँगी रातें जिस के हाथों अभी उस ख़्वाब का चर्चा नहीं है ज़बाँ गुम थी असर के ज़ाइक़ों में तिरा मुजरिम लब-ए-गोया नहीं है